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बांग्लादेश 2024 के लिए श्रीलंका के 2022 के जन उभार से क्या सबक निकलता है?

यह आलेख 25 अगस्त 2024, The political lessons of Sri Lanka’s 2022 uprising for Bangladesh 2024 को अंग्रेजी में छपे लेख का हिंदी अनुवाद है।

अप्रैल-जुलाई 2022 में श्रीलंका में हुए जन उभार के महज दो साल बाद ही, पड़ोसी बांग्लादेश में जुलाई-अगस्त 2024 में बड़े पैमाने पर प्रदर्शन हुए, जिसने पूरी दुनिया के सत्ताधारी वर्ग में सिहरन पैदा कर दी। 

श्रीलंका के पूर्व राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे और बांग्लादेश की पूर्व प्रधानमंत्री शेख़ हसीना। (एपी फ़ोटो/इरांगा जयवर्द्धने/ किमिमासा मायामा) [AP Photo/Eranga Jayawardena/Kimimasa Mayama]

इनकी मूल शुरुआत में जो भी अंतर रहा हो, दोनों जन विद्रोह उसी वैश्विक पूंजीवादी संकट से पैदा हुए जिससे हर देश प्रभावित है। सरकारों द्वारा मज़दूरों और ग़रीबों पर लादे गए आर्थिक संकट के जवाब में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जो वर्ग संघर्ष विकसित हो रहा है, ये उसी का हिस्सा है। 

इन उथल पुथल से ज़रूरी राजनीतिक सबक लेना, श्रीलंका, बांग्लादेश और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मज़दूरों के लिए, आगे के क्रांतिकारी संघर्षों की तैयारी के लिए आवश्यक है। 

घातक कोविड-19 महामारी और रूस के ख़िलाफ़ यूक्रेन में अमेरिका-नेटो के युद्ध ने जब सप्लाई चेन को बुरी तर प्रभावित किया तो इसके बाद आसमान छूती महंगाई के बीच 2022 में श्रीलंका में प्रदर्शन और हड़तालें फूट पड़ीं। श्रीलंका में संकट ख़ासतौर पर गहरा गया, जब 2022 की शुरुआत में विदेशी रिज़र्व बहुत नीचे चला गया था जिससे सरकार पर विदेशी कर्ज़ों की अदायगी में डिफ़ॉल्ट होने का ख़तरा पैदा हो गया और इसके कारण सभी ज़रूरी आयात ठप पड़ गए।

लोग खाने, ईंधन और दवाओं के लिए लंबी लंबी लाइनों में लगे थे लेकिन राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे की सरकार ने कोई राहत नहीं पहुंचाया। लंबे समय तक बिजली कटौती रोज़ाना की बात हो गई थी। 

जनता सड़कों पर उतर पड़ी और उसने मांग की कि राष्ट्रपति को इस्तीफ़ा देना चाहिए- 'गोटा गो होम'- इसके साथ ही सभी सांसदों को नकारने का भी अभियान चला- 'नो टू 225'। यह आंदोलन जंगल में आग की तरह फैल गया और जगह जगह अपने आप स्वतःस्फूर्त प्रदर्शन शुरू हो गए। सेंट्रल कोलंबो में गारे फ़ेस ग्रीन पर हज़ारों लोगों ने कब्ज़ा कर लिया और जब राजपक्षे ने इमरजेंसी और कर्फ़्यू लागू किया तो राज्य के दमन के ख़तरे की भी इन लोगों ने परवाह नहीं की। 

इस संघर्ष में एक संगठित ताक़त के रूप में शामिल होने से रोकने के लिए ट्रेड यूनियनों ने पूरा ज़ोर लगा दिया। हालांकि बड़ी संख्या में मज़दूर इन प्रदर्शनों में शामिल हो गए, इसके बाद यूनियन के नौकरशाहों ने सीमित कार्रवाई की अपील की, यानी 28 अप्रैल और छह मई को एक दिवसीय आम हड़तालों का आह्वान किया। आंदोलन को बांटने के लिए जब सरकार ने नस्लीय सांप्रदायिक नफ़रत का सहारा लिया तो इसके विरोध में लाखों लोगों ने आपसी मतभेद भुलाकर काम बंद कर दिया। 

इस जन बग़ावत के सामने सरकार ढह गई और राजपक्षे को इस्तीफ़ा देने और देश छोड़कर भागने पर मजबूर होना पड़ा। 

शनिवार, 9 जुलाई 2022 को श्रीलंका के कोलंबो में राष्ट्रपति के आधिकारिक आवास को जाने वाली सड़क पर प्रदर्शनकारियों की भीड़। (एपी फ़ोटो/अमिथा थेन्नाकून) [AP Photo/Amitha Thennakoon]

हालांकि, राजपक्षे सरकार की जगह जो लोग आए वे वही पूंजीवाद का बचाव करने वाले थे- यानी वही संसदीय पार्टियां, ट्रेड यूनियनें और फ़्रंटलाइन सोशलिस्ट पार्टी (एफ़एसपी) जैसे फ़र्जी वामपंथी थे। पूंजीवादी विपक्षी पार्टियों ने पूंजीवादी शासन को बनाए रखने के लिए एक अंतरिम सरकार के गठन का आह्वान किया, जबकि ट्रेड यूनियनें और एफ़एसपी ने इस मांग के पीछे मज़दूर वर्ग को पिछलग्गू बना दिया। 

नतीजतन, यह बदनाम संसद, एक ग़ैरलोकतांत्रिक रूप से चुने, आईएमएफ़ समर्थक और अमेरिकी कठपुतली रनिल विक्रमसिंघे को राजपक्षे की जगह कार्यकारी राष्ट्रपति बनाने में क़ामयाब रही। बीते दो सालों में उसने आईएमएफ़ के सार्वजनिक खर्च में कटौती के कार्यक्रम को निर्ममता से लागू किया है और मज़दूरों के विरोध को दबाने के लिए तानाशाही वाले क़ानूनों का सहारा लेकर पुलिसिया राज्य के दमन का इस्तेमाल किया। 

जैसा कि सोशलिस्ट इक्वालिटी पार्टी (एसईपी) के चुनावी घोषणापत्र में कहा गया हैः 'यह अनिवार्य नहीं था कि 2022 की बग़ावत विक्रमसिंघे शासन के सत्ता में आने के साथ समाप्त हो जाए।'

इंटरनेशनल कमेटी ऑफ़ फ़ोर्थ इंटरनेशनल (आसीएफ़आई) की श्रीलंकाई शाखा एसईपी ने जोर देकर कहा है कि इस पूंजीवादी प्रणाली में मेहनतकश लोगों के लिए कोई समाधान मौजूद नहीं है। इसलिए मज़दूर वर्ग को, सामाजवादी कार्यक्रम के आधार पर लोकतांत्रिक और सामाजिक अधिकारों की रक्षा के लिए, शहरी और ग्रामीण ग़रीबों को अपने साथ लाना होगा। 

हमने हर कार्यस्थल पर एक्शन कमेटियां बनाने का मज़दूरों का आह्वान किया है, चाहे वो बगान हो या ग्रामीण इलाक़े हों, ताकि सभी पूंजीवादी पार्टियों और पूंजीवाद समर्थक ट्रेड यूनियनों से अलग हटकर सभी मामलों को स्वतंत्र रूप से वे अपने हाथ में लें।

इस लड़ाई में एक महत्वपूर्ण राजनीतिक प्रगति के रूप में, एसईपी ने मेहनतकश लोगों और नौजवानों से मज़दूरों और ग्रामीण जनता की एक डेमोक्रेटिक एंड सोशलिस्ट कांग्रेस के आयोजन के लिए अभियान चलाने का आग्रह किया है, जिसमें इन एक्शन कमेटियों के प्रतिनिधि शामिल हों। संसद की बजाय, जिसमें बुर्जुआ राजनेताओं का वर्चस्व है, ऐसी कांग्रेस मज़दूर वर्ग के प्रतिनिधियों को अपने महत्वपूर्ण सामाजिक और लोकतांत्रिक अधिकारों की रक्षा के लिए एक रणनीति तैयार करने का साधन देगी।

हालांकि एक जन आंदोलन में राजनीतिक नेतृत्व सबसे नाज़ुक मुद्दा होता है। पूंजीवाद के ख़िलाफ़ राजनीतिक संघर्ष छेड़ने के लिए, हमने बताया है कि समाजवादी नीतियों को लागू करने के लिए सत्ता पर कब्ज़ा करने और मज़दूरों और किसानों की सरकार बनाने के लिए एक जन क्रांतिकारी पार्टी का होना ज़रूरी है।

बांग्लादेश में स्टूडेंट्स फ़ॉर एंटी डिस्क्रिमिनेशन (एसएडी) के बैनर तले यूनिवर्सिटी के छात्रों ने अवामी लीग सरकार के नेतृत्व में कोर्ट के द्वारा लागू की गई प्रतिगामी और विभाजनकारी कोटा प्रणाली के विरोध में जुलाई की शुरुआत में प्रदर्शन शुरू किया था। जब दसियों हज़ार छात्र प्रदर्शन में शामिल हो गए तो प्रधानमंत्री शेख़ हसीना ने अवामी लीग के गुंडों के साथ पुलिस और सेना को उन पर खुला छोड़ दिया, जिसमें कई छात्र मारे गए।

पांच अगस्त 2024, सोमवार को, बांग्लादेश के ढाका में प्रदर्शनकारी, प्रधानमंत्री शेख़ हसीना के इस्तीफ़े के बाद नारे बाज़ी के साथ जश्न मनाते हुए। (एपी फ़ोटो/राजिब दहर) [AP Photo/Rajib Dahr]

लोगों का गुस्सा इस खूनी दमन, कर्फ़्यू लगाने और इंटरनेट बैन से और भड़क गया। एसएडी ने अगस्त की शुरुआत में ढाका में एक मार्च का आह्वान किया, जिसमें दसियों लाख लोगों ने शामिल होकर पिसने वाली ग़रीबी, सामाजिक ग़ैर बराबरी और मज़दूरों के निर्मम शोषण के ख़िलाफ़ अपने ग़ुस्से का इजहार किया। उन्होंने हसीना और उनकी सरकार से इस्तीफ़ा देने की मांग की। 

जन विद्रोह के इस ज्वार को पीछे धकेलने में नाकाम सेना तब सामने आई और प्रधानमंत्री को इस्तीफ़ा देने और भारत भाग जाने के लिए मज़बूर किया। इसके बाद सेना की ओर से एक अंतरिम प्रशासन गठित किया गया जिसे एसएडी और तथाकथित नागरिक समूहों का समर्थन हासिल था और इस अंतरिम सरकार के प्रमुख सलाहकार के रूप में एक पूर्व बैंकर मोहम्मद यूनुस को नियुक्त किया गया। 

यूनुस का अमेरिकी और यूरोपीय साम्राज्यवादी शक्तियों से बड़ा गहरा नाता है। नियुक्त होते ही उन्होंने स्पष्ट किया कि वो 'व्यापक आर्थिक स्थिरता और निरंतर विकास को बहाल करने के लिए मजबूत और दूरगामी आर्थिक सुधार करेंगे, जिसमें सुशासन और भ्रष्टाचार और कुप्रबंधन से निपटने को प्राथमिकता दी जाएगी।'

'मजबूत और दूरगामी आर्थिक सुधारों' का बस यही मतलब है किः बड़े व्यवसाय और विदेशी निवेशकों के मुनाफ़े को सुनिश्चित करने के लिए मेहनतकश लोगों को इसकी क़ीमत भुगतनी पड़ेगी यानी बाजार समर्थक निर्मम खर्च कटौती के उपाय किए जाएंगे। इसके अलावा, इन उपायों को लागू करने को सुनिश्चित करने के लिए सेना द्वारा समर्थित अंतरिम प्रशासन अनिश्चित काल तक सत्ता में रहेगा। साथ ही किसी चुनाव की घोषणा नहीं की गई।

दक्षिणपंथी बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी) ने इस अंतरिम शासन का पूरा समर्थन करने का एलान किया है, जैसा कि लेफ़्ट डेमोक्रेटिक अलायंस में शामिल विभिन्न स्टालिनवादी पार्टियों और पूंजीवाद समर्थक ट्रेड यूनियनों ने भी समर्थन दिया है। 

श्रीलंका में इनके समकक्षों की तरह ही, इन स्टालिनवादी पार्टियों ने ट्रेड यूनियनों के साथ मिलकर, जन उभार में एक वर्ग के रूप में अपने स्वतंत्र हितों के लिए संघर्ष करने से मज़दूर वर्ग को रोकने का काम किया है। 

मेहतकश लोग अवामी लीग के तानाशाही और भ्रष्ट शासन से पिछले 15 सालों में सही ही विरोध में हैं। अवामी लीग के शासन द्वारा लोकतांत्रिक और सामाजिक अधिकारों का बर्बर दमन कुछ और नहीं बल्कि पूंजीवादी वर्ग का गंदा चेहरा ही है, जोकि किसी भी क़ीमत पर पूंजीवादी शासन को बचाने के लिए प्रतिबद्ध था।

इस अंतरिम शासन और जो भी इसकी जगह पूंजीवादी सरकार आएगी, उसके शासन में मज़दूरों, युवा लोगों और ग्रामीण ग़रीबों पर हमले और बढ़ेंगे ही। प्रशासन के पीछे पूंजीवादी राज्य खड़ा है और वो खर्चे में कटौती की अपनी नीतियों के ख़िलाफ़ किसी भी विरोध को रोकने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ेगा।

2022 में श्रीलंका में जो कुछ हुआ उसका यही सबक है कि मज़दूर वर्ग सभी पूंजीवादी पार्टियों, स्टालिनवादियों सहित उनके वामपंथी सहयोगियों और उनके ट्रेड यूनियनों से राजनीतिक अलगाव के बिना अपने वर्ग हितों के लिए नहीं लड़ सकता है। किसी भी वास्तविक संघर्ष को आगे बढ़ाने के लिए मज़दूरों द्वारा लोकतांत्रिक रूप से चुनी गई स्वतंत्र रैंक-एंड-फ़ाइल कमेटियां ज़रूरी हैं।

पूंजीवादी सिस्टम के अंदर जो भयंकर सामाजिक संकट मेहनतकश आबादी झेल रही है उसका कोई समाधान नहीं है। स्थाई क्रांति के अपने सिद्धांत में लियोन ट्राट्स्की ने दिखाया है कि श्रीलंका और बांग्लादेश जैसे पूंजीवादी विकास में पिछड़े देशों में अंतरराष्ट्रीय वित्तीय पूंजी से नाभिनाल बद्ध पूंजीपति वर्ग, मज़दूर वर्ग और ग्रामीण मेहनतकश आबादी की लोकतांत्रिक और सामाजिक आकांक्षाओं को पूरा करने में मूलतः अक्षम है।

मजदूरों और किसानों की सरकार के लिए सत्ता के लिए संघर्ष ज़रूरी है ताकि समाज को बुनियादी तौर पर जनता की जरूरतों को पूरा करने के लिए नया रूप दिया जा सके, न कि छोटे अमीर अभिजात वर्ग के मुनाफ़े को पूरा करने के लिए। जैसा कि ट्रॉट्स्की ने समझाया, ऐसा संघर्ष आवश्यक रूप से वैश्विक पूंजी के ख़िलाफ़ अंतरराष्ट्रीय स्तर पर छेड़ा जाना चाहिए।

श्रीलंका में राष्ट्रपति चुनावों में विश्व समाजवादी क्रांति के लिए आईसीएफ़आई के संघर्ष के अभिन्न हिस्से के रूप में एसईपी सक्रिय रूप से श्रीलंका, पूरे दक्षिण एशिया और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मज़दूर वर्ग की एकता के निर्माण के लिए अभियान चला रही है। 

बांग्लादेश और श्रीलंका में हालिया जन उभार पूरे क्षेत्र पर छाए गंभीर मुद्दों की ओर संकेत करता है। साल 1947-1948 में ब्रिटिश औपनिवेशिक साम्राज्यवादी शासकों ने प्रतिक्रियावादी विभाजनकारी आधार पर भारतीय उप महाद्वीप को हिंदू भारत और मुस्लिम पाकिस्तान के बीच बांट दिया था ताकि मज़दूर वर्ग को बांटा जा सके और अपना प्रभाव बनाए रखा जा सके। इस इलाक़े में ब्रिटिश गतिविधियों के लिए एक बेस के तौर पर श्रीलंका को एक अलग देश बनाया गया। 

दक्षिण एशिया के सत्ताधारी वर्ग ने विभाजनकारी साम्प्रदायिकता और राष्ट्रवाद के उन्हीं प्रतिक्रियावादी तौर तरीक़ों के मार्फ़त उनके शासन को केवल बनाए रखा है, जिसके कारण यह इलाक़ा जनसंहार, नागरिक संघर्ष और युद्ध में फंसा हुआ है। बर्बर शोषण और दमन के ख़िलाफ़ संघर्ष के बाद 1971 में बांग्लादेश का गठन हुआ, लेकिन इसने मेहनतकश लोगों की बुनियादी समस्याओं को हल नहीं किया। 

श्रीलंका में एसईपी, बांग्लादेश के मज़दूरों का आह्वान करता है कि वे अंतरिम प्रशासन की सार्वजनिक खर्च कटौती के एजेंडे के विरोध में अपनी खुद की स्वतंत्र एक्शन कमेटियां बनाएं और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मज़दूरों के संघर्षों को एकजुट करने के लिए आईसीएफ़आई की पहलकदमी पर बने रैंक एंड फ़ाइल कमेटियों के इंटरनेशनल वर्कर्स अलायंस के साथ इसे जोड़ें।

इन सबके अलावा, अंतरराष्ट्रीय समाजवाद के लिए संघर्ष के एक हिस्से के तौर पर दक्षिण एशिया में समाजवादी गणराज्यों का संघ बनाने का संघर्ष छेड़ने के लिए हमारे साथ हाथ मिलाने के लिए, बांग्लादेश में अंतरराष्ट्रीय ट्राट्स्कीवादी आंदोलन- आईसीएफ़आई- की एक शाखा बनाने की कोशिश करनी चाहिए।

हम बांग्लादेश के नौजवान लोगों और मज़दूरों का आह्वान करते हैं कि वे इस राजनीतिक चुनौती को स्वीकार करें। वर्ल्ड सोशलिस्ट वेबसाइट को पढ़ें, हमारे कार्यक्रमों और नज़रिए का अध्ययन करें और डब्ल्यूएसडब्ल्यूएस के माध्यम से हमसे संपर्क करें। हम आपको अपना राजनीतिक सहयोग देने के लिए हमेशा तैयार हैं।

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